Tuesday, August 18, 2009

कोई आना चाहे साथ ?

अरे ऐसा क्यों..ये हमें न पुचो..

या क्या चल रहा हे…अब तुम न सोचो..



जिंदगी ऐसेही..हे..

बस तुम चलो आगे..

कुछ रंगीन हे..तो कुछ..फीके इसके धागे..

बस हम चले आगे..



मन ही मन मै लाखो पहेलिया..



ये पर्वत हे यहाँ..

सदियों से खड़े..



और बोहोत कुछ पाना हे…

ये तो हे शुरवात..

और बोहोत आगे जाना हे..

कोई आना चाहे साथ??



गम हमें मालूम नही.

मान. कहे वही सही.

सछै…की दुनिया मै..

बुरे की कायनात..

और बोहोत दूर जन हे.

कोई आना चाहे साथ..?



अनजानी इन रहोमे..तुम छोड़ न देना साथ॥



बस एक हवाका ज्होका..और साड़ी ज़िन्दगी बदल गई

हम किसे उन्हें आजाद करे खुदसे

जंजीर हुए साए

सोच सम्ज्ह्कर..जान भूजकर

मेने भुला दिया

हर वो किस्सा जो दिल बहलाने वाला था

एके क करके सब रस्ते सुनसान..

शायद मै लंबे सफर जाने वाला था

बोहोत काबिल थी ज़िन्दगी..

पर मीन बोहोत कम जिया था

कुछ ज़िन्दगी के पल..

जो सिर्फ़ मेरे नाम हो

आखोमे एक रौशनी

मन मै आराम हो

हर रोज़ की भीड़ मै कुछ थक से जतेहे हे

बोहोत कुछ हम चाहते हे..पर थोड़ा पते हे

ख़ुद से ही जो शर्त लगी हे..

हम अक्सर हार जाते हे

फिर खुदको फिरसे पाना

हमको जाहिर होता हे

सदियों बाद घर आया..

और पाया सबकुछ नया

बोहोत दूर जन हे..

कोई आना चाहे साथ

और बोहोत कुछ पाना हे

कोई आना चाहे साथ



No comments:

Post a Comment